Friday, January 18, 2008

शेर-ओ-शायरी

उस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए ना बने **ग़ालिब
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नाज़ है गुल को नजाकत पे चमन ऐ "जोक"
उसने देखे ही नही नाज़-ओ-नज़ाकत वाले
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दीदार की तलब और तरीकों से बेखबर
दीदार की तलब है तो पहले निगाह माँग
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"उस" से एक बार तो रूठूं में उसी की तरह
और मेरी तरह से "वो" मुझको मनाने आये
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हर लफ्ज़ किताबों मे तेरा अक्स लिए है
एक फूल सा चेहरा मुझे पढ़ने नही देता
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मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
में जिस "मकान" में रहता हूँ उसे "घर" कर दे
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शब-ए-विसाल में रोशन चिराग गुल कर दो
ख़ुशी की बज्म में क्या काम जलने वालों का
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पूछा कुछ इस तरह से उसने मेरा मिजाज़
कहना पडा कि "शुक्र है परवरदिगार का"
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डूबना ही था जो कश्ती का मुकद्दर या रब
आँख के सामने ए काश ना साहिल होता

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