Friday, April 23, 2010

चेहरा

चेहरा 
उम्र गुज़र गयी आईना साफ़ करते करते |
गौर से देखा तो पाया कि चेहरे पे धूल थी ||

Tuesday, April 20, 2010

हमें तो काटनी है शाम-ए-ग़म में ज़िन्दगी अपनी
जहाँ वो हों वहाँ ऐ चांद ले जा चाँदनी अपनी

तमन्ना थी तो बस ये थी तमन्ना आख़िरी अपनी
कि वो साहिल पे होते और कश्ती डूबती अपनी
--’शीरी' भोपाली

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दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की
लोगों ने घर के सहन में रस्ते बना लिए!
--सिब्ते-अली ’सबा’

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अजब तर्कीब से साने ने रख्खी है बिना इस की
कि सदिया हो गयी इक ईंट भी इसकी नहीं खिसकी
लगी रहती है आमद-रफ़्त जिसमें रोज़ जिस-तिस की
वही रौनक है जिसकी और वही दिलचस्पियाँ जिसकी
यह दुनिया या इलाही !जल्वा गाह-ए-नाज़ है किस की
हज़ारो उठ गये ,रौनक़ वही है आज तक इस की
--"नादिर" काकोरवी

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रिन्द-ए-ख़राब हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू
तुझको पराई क्या पड़ी अपनी निबेड़ तू

यह तंग-नाये-देह्र नहीं मंज़िल-ए-फ़राग (दह्र= समय मंज़िल-ए-फ़राग=मुक्ति की मंज़िल)
गाफ़िल! ना पाँव हिर्स के फैला,सुकेड़ तू (हिर्स=लालच)

उल्फ़त का गर है नख़्ल तो सरसब्ज़ होयेगा (नख़्ल= पेड़)
सौ बार जड़ से फ़ेंक दे उस को उखेड़ तू

आवारगी से कू-ए-मोहब्बत के हाथ उठा
अए ज़ौक ! ये उठा न सकेगा खुखेड़ तू
--ज़ौक

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होश-ओ-हवास ताब-ओ-तावाँ ’दाग़’ जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं ,सामान तो गया
--’दाग़’ देहलवी

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लाई हयात आये ,क़ज़ा ले चली ,चले !
अपनी खु़शी न आये ,न अपनी खु़शी चले

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल-लगी चले ?

दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूँ ही ,जब तक चली चले
--ज़ौक

वह

वह हर गली नुक्कड़ पर तन कर खड़ा था। लोग आते जाते सिर नवाते, चद्दर चढ़ाते उसको। दीमक ने अपना महल बना लिया था, अन्दर ही अन्दर उसके। मैंने जब वरदान माँगा, तो वह ढह गया।