Thursday, January 10, 2008

शेर-ओ-शायरी

परिंदों को मिलेगी मंजिल एक दिन, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं
वही लोग रहते हैं खामोश अक्सर, ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं
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मुझे मेरे दोस्तों से बचाइए "राही"
दुश्मनों से में खुद निपट लूंगा
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तुम तकल्लुफ़ को भी इख्लास समझते हो "फराज"
दोस्त होता नही हर हाथ मिलाने वाला
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दोस्तों से आज मुलाकात की शाम है
यह सज़ा काट के फिर अपने घर को जाऊँगा
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दोस्ती जब किसी से की जाये
दुश्मनों की भी राय ली जाये
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दिल की हकीकत, अर्श की अजमत, सब कुछ है मालूम हमें
सैर रही है अक्सर अपनी इन पाकीजा मकानों में
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दिल नाउम्मीद तो नही नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है
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उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्जा ग़ालिब
हम बयाबान में हैं और घर में बहार आयी है
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अपनी गली में मुझको ना कर दफ्न बाद-ए-कत्ल
मेरे पते से खल्क को क्यों तेरा घर मिले -Galib
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मुझे भूलना भी चाहो तो भुला न सकोगे
में पलकों पे ठहर जाऊँगी आंसू की तरह
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