Friday, January 18, 2008

शेर-ओ-शायरी

उस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए ना बने **ग़ालिब
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नाज़ है गुल को नजाकत पे चमन ऐ "जोक"
उसने देखे ही नही नाज़-ओ-नज़ाकत वाले
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दीदार की तलब और तरीकों से बेखबर
दीदार की तलब है तो पहले निगाह माँग
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"उस" से एक बार तो रूठूं में उसी की तरह
और मेरी तरह से "वो" मुझको मनाने आये
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हर लफ्ज़ किताबों मे तेरा अक्स लिए है
एक फूल सा चेहरा मुझे पढ़ने नही देता
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मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
में जिस "मकान" में रहता हूँ उसे "घर" कर दे
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शब-ए-विसाल में रोशन चिराग गुल कर दो
ख़ुशी की बज्म में क्या काम जलने वालों का
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पूछा कुछ इस तरह से उसने मेरा मिजाज़
कहना पडा कि "शुक्र है परवरदिगार का"
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डूबना ही था जो कश्ती का मुकद्दर या रब
आँख के सामने ए काश ना साहिल होता

Thats too much

Our brains are divided into two.
The left side has nothing right in it and the right side has nothing left in it

Monday, January 14, 2008

शेर-ओ-शायरी

मेरे मरने के बाद, मेरे जलने से पहले
ए यारों, मेरा दिल निकाल लेना
कहीं इसमे रहने वाले न जल जाएँ
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हम भी दरिया हैं हमे अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जायेगा
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सीरत नहीं है जिसमें वो सूरत फिजूल है
जिस गुल में बू नहीं, वो कागज़ का फूल है
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दोस्तों से इस कदर सदमें उठाए जाने पर
दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा
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मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहिए
कि दाना ख़ाक में मिलकर गुल-ए-गुलज़ार होता है
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अहले जुबां को है बहुत कोई नहीं अहले दिल
कौन तेरी तरह "हाफीज़" दर्द के गीत गा सके
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लायी हयात आई कज़ा ले चली चले
अपनी ख़ुशी से आये ना अपनी खुशी चले
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बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का
जो चीरा तो एक कतरा खून ना निकला
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उम्र-ए-दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन
दो आरजू में कट गए दो इंतज़ार में
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जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता दे जहाँ खुदा ना हो
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बंदगी का मेरा अंदाज़ जुदा होता है
मेरा काबा मेरे सज़दों में छुपा होता है
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उम्र तो सारी कटी इश्क-ए-बुताँ में "मोमिन"
आखिरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे
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वो कत्ल भी कर डालें तो चर्चा नहीं होती
हम आह भी भरते तो हो जाते हैं बदनाम
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यह इकामत हमें पैगाम-ए-सफर देती है
ज़िन्दगी मौत के आने की खबर देती है
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मेरे गुनाह ज्यादा है या तेरी रहमत
करीम तू ही बता दे हिसाब करके मुझे
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उनके देखे से आ जाती है मुह पर रोनक
वो समझते हैं बीमार का हाल अच्छा है
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अंदाज़ अपना देखते हैं आईने में वो
और ये भी देखते हैं कोई देखता ना हो
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Thursday, January 10, 2008

शेर-ओ-शायरी

परिंदों को मिलेगी मंजिल एक दिन, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं
वही लोग रहते हैं खामोश अक्सर, ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं
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मुझे मेरे दोस्तों से बचाइए "राही"
दुश्मनों से में खुद निपट लूंगा
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तुम तकल्लुफ़ को भी इख्लास समझते हो "फराज"
दोस्त होता नही हर हाथ मिलाने वाला
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दोस्तों से आज मुलाकात की शाम है
यह सज़ा काट के फिर अपने घर को जाऊँगा
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दोस्ती जब किसी से की जाये
दुश्मनों की भी राय ली जाये
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दिल की हकीकत, अर्श की अजमत, सब कुछ है मालूम हमें
सैर रही है अक्सर अपनी इन पाकीजा मकानों में
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दिल नाउम्मीद तो नही नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है
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उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्जा ग़ालिब
हम बयाबान में हैं और घर में बहार आयी है
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अपनी गली में मुझको ना कर दफ्न बाद-ए-कत्ल
मेरे पते से खल्क को क्यों तेरा घर मिले -Galib
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मुझे भूलना भी चाहो तो भुला न सकोगे
में पलकों पे ठहर जाऊँगी आंसू की तरह
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Wednesday, January 9, 2008

शेर-ओ-शायरी

चेहरे पे बनावट का गुस्सा, आंखों से छलकता प्यार भी है
इस शोख-ए-अदा को क्या कहिये, इनकार भी है इकरार भी है
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सुनते हैं की मिल जाती है हर चीज़ दुआ से
इक रोज़ तुम्हे माँग के देखेंगे खुदा से
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एक बार जो बिखरी तो बिखर जायेगी
जिन्दगी जुल्फ नहीं जो संवार जायेगी
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देखा जो तीर खाके कमींगाह की तरफ
अपने ही दोस्तों से मुलाकात हो गयी
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तुम दूर खडे देखा ही किये और डूबने वाले डूब गए
साहिल को जो मंजिल समझे वो लज्जत-ए-दरिया क्या जाने
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पत्थर के खुदा वहाँ भी पाए
हम चाँद से आज लौट आये
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सारे मुसाफिरों से ताल्लुक निकल पड़ा
गाड़ी में इक शख्स ने अखबार क्या लिया
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रंज से खूगर हुआ इन्साँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी की आसां हो गयी -Ghalib
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कह रहा है मोज-ए-दरिया से समंदर का सुकूँ
जिसमे जितना ज़र्फ़ है वो उतना ही खामोश है -Iqbal
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जिसकी आवाज़ में सलवट हो निगाहों में चुभन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नही जोडा करते -गुलज़ार
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उम्र भर जलाता रहा इस दिल को खामोशी के साथ
और शमा को इक रात की सोज़-ए-दिली पे नाज़ था
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आये हे बैकसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब
किस के घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद
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उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये
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यही हे जिंदगी कुछ ख़ाक चंद उम्मीदें
इन्ही खिलोनों से तुम भी बहल सको तो चलो
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जिंदगी की बात सुनकर क्या कहें
इक तमन्ना थी जो अब तकाजा बन गयी
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जिंदगी यूं हुयी बसर तनहा
काफिला साथ और सफर तनहा -गुलज़ार
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मैंने ये कब कहा की मेरे हक में हो जवाब
खामोश मगर क्यों हे तू, कोई फैसला तो दे
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कंद-ए-लब का उनके बोसा बे-तकल्लुफ़ ले लिया
गलियाँ खाई बला से, मुह तो मीठा हो गया
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एक हंगामे पे मौकूफ है घर की रोनक
नोहा-ए-गम ही सही, नग्म-ए-शादी ना सही -Galib
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मेरी किस्मत में गम गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते
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शेर-ओ-शायरी

रफीकों से रकीब अच्छे जो जल कर नाम लेते हैं
गुलों से खार बेहतर है, जो दामन थाम लेते हैं
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यह फक्र तो हासिल है, बुरे हैं या भले हैं
दो चार क़दम हम भी, तेरे साथ साथ चले हैं
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कल धूप के मैले से खरीदे थे कुछ खिलोने
एक मोम का पुतला था जो घर तक नही पहुंचा
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जाँ से प्यारे लोगों से भी कुछ कुछ पर्दा लाजमी है
सारी बात बताने वाले, कुछ कुछ पागल होते हैं
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राज-ए-मुहोब्बत कहने वाले लोग तो लाखों मिलते हैं
राज-ए-मुहोब्बत रखने वाला हम सा देखा हो तो कहो
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सूरत दिखा कर मुझे फिर बेताब कर दिया
एक लुत्फ़ आ चला था तेरे इंतज़ार में
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मुझको पाना है तो फिर मुझ में उतर कर देखो
यूँ किनारे से समंदर नहीं देखा जाता
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माना कि आपकी नज़रों में कुछ नहीं है हम
मगर उनसे जाकर पूछिये जिन्हें हासिल नहीं है हम
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जो कहा मैंने कि प्यार आता है मुझे तुम पर
हंस कर कहने लगा कि और आपको आता ही क्या है
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कोई आंखों आंखों से बात कर लेता है
कोई आंखों आंखों में मुलाकात कर लेता है
मुश्किल होता है जवाब देना....
जब कोई खामोश रहकर भी सवाल कर देता है
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इस शहर में अभी तक अजनबी हूँ मैं
सब लोग फरिश्ते हैं, आदमी हूँ मैं
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आंसू निकल पड़े तो मेरी लाज रह गयी
इजहार-ए-गम का वरना सलीका न था मुझे
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जान लेनी ही थी तो कह दिया होता
मुस्कराने की क्या जरूरत थी
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साहिल पे खडे हो तुम्हे क्या गम, चले जाना
मैं डूब रहा हूँ अभी डूबा तो नही हूँ
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Tuesday, January 8, 2008

शेर-ओ-शायरी

दुनिया की महफिलों से उकता गया हूँ या रब
क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो -इकबाल
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कता कीजिए न ताल्लुक हमसे
कुछ नहीं तो अदावत ही सही -ग़ालिब
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तकदीर बनाने वाले तूने कमी न की
किसी को क्या मिला, मुकद्दर की बात है
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मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख्वाब की ताबीर बताने वाला
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तेरे आजाद बंदों की, ना यह दुनिया ना वो दुनिया
यहाँ मरने की पाबंदी, वहाँ जीने की पाबन्दी
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हम तो वो सायिल नहीं, जो दर-बा-दर फिरता रहे
एक ही दर था जहाँ सिर को झुका कर रह गए
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वो तो कुछ हो ही गयी है तुमसे मुहब्बत वरना
हम तो वो खुद सार हैं कि अपनी भी तमन्ना ना करें
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हमको भी हमराह लेते जाईये
एक से अच्छा है दो का काफिला
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यह सोच कर हम आये, तेरे गुलशन में माही
वो फूलों से चेहरे गुलाबों में मिल गए
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सुकून-ए-दिल के वास्ते, वादे तो कीजिए
हम जानते हैं आपसे निभाए ना जायेंगे
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खुशबुओं को फैलने की दरकार बहुत है लेकिन
आसाँ नहीं ये हवाओं से रिश्ता जोड़े बगेर
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हाल-ए-दिल यारों को लिखूं कैसे
हाथ दिल ही से जुदा नहीं होता
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